शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

बरगद और सोन चिरइयां

काव्य की शैली में, मेरी पहली कहानी



आज सुनाने आया हूँ, मैं एक कहानी
ना परियों की,ना किसी रानी की
ना दादी की ,ना नानी की

ये कहानी है
दूर देश मे रहने वाले
सोन चिरईयाँ और बरगद की।

शुरुआत उस वक़्त से ,जब बरगद की जड़े
ज़मीन के अंदर
तो, टहनियां,आकाश की ओर
विस्तार ले रही थी।

उन्ही दिनो,किसी रोज
मई की तपती दोपहरी मे
जड़ से फुनगी तक,अचानक
बरगद में सरसराहट हुई
किसी के आने की आहट हुई
शाखों ने ख़बर की
पंखों को तौलती
एक सोन चिरईयाँ ,आई है।
फिर क्या,
टहनियों ने सहारा
और पत्तियों ने दी छाया
सोन चिरईयाँ,पहले पहल सकुचाई
थोड़ी मुस्कुराई, कहा शुक्रिया।

लेकर कुछ पल का विराम
थके पंखों में भरकर जान
बरगद को छोड़,निकल पड़ी
अपने घोंसले की ओर।

इधर ,बरगद झूमने लगा
मन ही मन ,गुनने लगा
सबसे बेहतर, साथी मिल गया।

बरगद और सोन चिरईयाँ की
ये पहली मुलाक़ात थी।

फिर तो,
सिलसिला ही चल पड़ा
मिलने-जुलने,कहने-सुनने का
दिन,तारीख़, समय कुछ भी निश्चित न था,
सिवाय इस बात के,
कभी बेहद लंबे,कभी छोटे
अनकहे, अनसुने,स्थाई  इंतज़ार के ।

जड़वत खड़े,बरगद ने
अपनी शाखों को ,खोल दिया था
दसों दिशाओ में,भुजाओं की तरह।

बरगद की चाहत थी,
सोन चिरईयाँ,जब भी आए,
जिस भी दिशा से आए
पत्तियों और शाखों को
अपनी ज़द में पाए।

ये सब
उस सोन चिरईयाँ के लिए था,
जिसकी किस्मत में विधाता ने
उड़ान ,लिखा था,और पंखों में
सामर्थ्य भरा था,
दिशाएं,समंदर
धरती, अम्बर
सब मापने,सबके पर जाने का।

गुज़रते वक़्त के साथ
आत्मिक हो रहे
बरगद और सोन चिरईयाँ,के रिश्ते में,
तब ,पहली बार ,कड़वाहट वाला क्षण आया था।

यूं तो बरगद बेहद संयमित था,
पर उस रोज,पहली बार
बरगद का संयम,टूट गया।

कई दिनों के बोझिल,आकुल
पहाड़ जैसे इंतज़ार के बाद,
चुपचाप,सहमी सी ,सोन चिरईयाँ
आई थी,संग अपने,
दूर देश जाने का संदेशा लाई थी।

फिर क्या था
अनहोनी की आशंका से बेज़ार
बरगद फूट पड़ा
जुड़े हुए हाथ के साथ
चीखते हुए कहा
जाओ अब कभी मत आना
अब नही है,यहां कोई ठिकाना।

सोन चिरईयाँ ने बहुत कोशिश की
बरगद को समझाने की
अपनी स्थितियों को बताने की,
मानने की,कुछ जताने की
पर, बरगद ने ना सुनने की शपथ उठा ली थी।

रिश्ते को शायद,थी नज़र लग गयी ,ज़माने की
भरोसा टूटने लगा
मनाने  वाला रूठने लगा ।

फिर तो
नाराज़गी और लड़ाईयों का
सिलसिला ही चल पड़ा।
बातों ,मुलाक़ातों का दौर
मुख़्तसर होने लगा।
शब्दों ने ,भाव खो दिया
और शायद,
रिश्ते ने यहीं अपना दम तोड़ दिया।

फिर ,एक रोज़
समंदर के पार से,सोन चिरईयाँ ने ,
औपचारिक संदेशा भेजा,
सुनो,बरगद
"अब मुझे फ़र्क, नही पड़ता"
मग़रूर, बरगद ने चीखते हुए कहा,
"मुझे भी ज़रूरत नही
समझो सब ख़त्म हुआ"।
इस संवाद के बाद
बरगद चुप है आज भी
औऱ सोन चिरईयाँ मौन।
सवाल अब तक मुखर है।
क्या सच मे इस रिश्ते का यही होना था?


अमिताभ भूषण अनहद


























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