सोमवार, 24 जनवरी 2022

दादी की मृत्यु पर बाबा के नाम पाती)

(

अम्मा भी चली गयी
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प्रणाम बाबू जी 
आज अम्मा भी 
चली गयी 

ठीक वैसे ही 
चुपचाप
जैसे बरसो पहले 
चले गए थे आप,

आपके बाद आपकी कमी 
हमेशा रही बाबूजी 
पर
बीते बीस साल में 
अम्मा थी,
अब 
वो भी नही रही

गोतिया-दियाद में
बस अम्मा ही तो साझी थी
अब वो भी चली गयी ,

अम्मा का जाना 
क्षणभंगुर काया के
लोप से बहुत ज्यादा है बाबूजी

बस अम्मा ही तो थी 
जिसके पास घर से जवार तक
सब की खोज ख़बर थी
 अम्मा का जाना 
 सूचनाओं से भरी 
 एक नदी का 
 सूख जाना है बाबूजी

वो अम्मा ही थी 
जो रोके -टोके जाने के बाद भी 
 न रे/न हे
"कहबई न त की "
कहते हुए सबकी ख़बर सबको 
बताती थी

बस अम्मा ही तो थी जो
सम्वेदना और सूचना से दरिद्रय
हो रहे,परिवार में पट्टी-पट्टीदार में
संबधो की ऊष्मा को बचा
रही थी,

अब वही चली गयी 
जिससे अबतक 
सब बचा हुआ था बाबूजी 

अम्मा के बाद अब कौन बताएगा
उस अलिखिति विधान को 
जिससे पूजाती थी
बन्नी परमेश्वरी
जगदम्बा जी
और ब्रह्म बाबा भी

अम्मा खाली नही गयी है
अपने साथ
एक पूरा संसार लेकर 
चली गयी है बाबूजी

अम्मा अभी जरूरी थी 
अम्मा में बस अम्मा नही
आप भी थे बाबूजी

अंत में बस इतना ही 
मईया भगवती 
आपको और अम्मा को
उसलोक में
हमेशा ख़ुश रखे बाबू जी।

आपका 
 गुंजन

🙏🙏

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

पुरानी तस्वीर

1

पुरानी तस्वीर 
अक्सर,कमाल करती है
स्मृतियों से ज़िन्दगी निहाल  करती है।


2
 पुरानी तस्वीर
 मतलब
 टाईम मशीन से
 टेलीपैथी तक।

3

पुरानी तस्वीर

जो ख़ुद में समेटे रहती है
संवेदनाओं का समंदर
और बांधती है सम्बंधो का सेतू

रविवार, 17 मई 2020

अब शहर नही हम आएंगे..

मज़दूर हो तुम
मजबूर हो तुम
हां पोर पोर
अब दर्द थकन से
चूर हो तुम

फिर भी
साहस से
संकल्पों से
परिपूर्ण हो तुम

मुझे कहने में संकोच नही
अब रत्ती भर
हां ,जीवट के
महावीर हो तुम

तुम हो धुरी निर्माणों की
नव भारत के अरमानों की
कारखानों की गोदामो की
दफ़्तर और दुकानों की
तुम हो बैसाखी शहरों की
भोजन , बर्तन ,कपड़ा,गाड़ी
बच्चा, कुत्ता,चौकीदारी
सब तुम से है सब तुम पे है

फ़िर भी
अपमान व्यंग सब सदा तुम्हारे हिस्से है
ग़म ग़ुरबत और तकलीफ़ तुम्हारे किस्से है

अब है समय, सौगन्ध उठाने का
संकल्प शक्ति दिखलाने का
समवेत स्वर से
गांव ,शहर गुंजाने का

कहो चीख़ कर, सत्ता के मतवालों से
नौकरशाहों और दलालों से
अब शहर नही हम आएंगे

पूंजी के पोसपूतों तुमको
अबकी नानी याद दिलाएंगे
हृदयहीन हुक्मरानों तुमको
अबकी घुटने पर हम लाएंगे
शासन के हर दोहरेपन की
अबकी बत्ती हम बनाएंगे
मेहनतकश की बेकद्री का
मूल्य तुम्हे समझाएंगे
अबकी शहर नही हम आएंगे

है सौगंध तुम्हे
उन सरकारी आदेशों की
जिसने तुमसे खाना छीना
पानी छीना ,दाना छीना
बच्चों का निवाला छीना
हा जिसने तुमको
प्यास दिया ,कुतर्क कहा
उपहास किया,

मीलों का भूगोल मापते
छाले वाले, पैरों की
सौगन्ध तुम्हे,

सौगंध तुम्हे
उन हमकदमो की
जो रस्ते मे ही छूट गए

सौगन्ध तुम्हे उन सब की भी
जिन्हें मौत मिली है पटरी की
जो कुचले गए है सड़को पर
जो पिटे गए है
ज़िले ज़िले के बॉडर पर

उन दुधमुंहों की सौगन्ध तुम्हे
जो माँ की सूखी छाती से
पहरों लिपटे उम्मीद लिए
कुछ कतरो की कुछ बूंदों की

है सौगन्ध तुम्हे उन माँओ की
जो पीड़ा प्रसव सहते
सहते दम तोड़ गई
परिवार अकेला छोड़ गई

भोगा जो सब है तुमने
उन सब की है सौगंध तुम्हे

कह दो संकल्प की ताकत से
सत्ता के ठेकेदारों से
सब पक्ष के जिम्मेदारों से
सरकारों से
हम शहर नही अब आएंगे

तुम करो हिफ़ाज़त
वंदे भारत वालो की
हम डंडे भारत वाले है

अब गांव ही रह जाएंगे
भात खुददी का खाएंगे
सतुआ पीकर रह जाएंगे
कोदो ,कउनी,शकरकंद
उपजाएँगे।
अब अपनी माटी में खुरपी
कुदाल चलाएंगे।
चाहे जो भी हो
अब शहर नही हम आएंगे

हम श्रमयोद्धा है मिट्टी के
पूंजी के पोसपूतो तुमको
हम नानी याद दिलाएंगे
मज़दूरों का मूल्यबोध
अब तुमको हम समझाएंगे।

और याद रहे
दरवाज़े पर सोंटा लेकर
राह तकूँगा बरस बरस
जब आओगे तुम
वोट मांगने गांव में
तुमको लाठी का स्वाद बताएंगे
जब लोकतंत्र को सार्थक करने
बूथ बूथ हम जाएंगे

उस रोज,
जो तुमने दिया है घाव  हमे
हम उसका भाव बताएंगे।

सहना सुनना बहुत हुआ
अब शहर नही हम आएंगे
अब शहर नही हम आएंगे

© अनहद

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

यादों की अटैची -------



बोझिल दिन के बाद 
अब बारी थी उनिंद रात की, 
कैलेंडर के मुताबिक़
आज की रात सोलहवीं रात थी
देशव्यापी,कोरोना कारावास की

पिछली रातों की तरह 
गीत,ग़ज़ल,कविता सब 
सुनने-पढ़ने के बाद भी
अभी रात तीन पहर शेष थी

कुछ ग़ैर जरूरी ,कपड़ें थे 
खूंटी पर टंगे 
उन्हें मोड़कर रखने लगा, आलमीरे  में
तभी नीचे वाली दराज़ पर नज़र गयी 
वहां रखी थी
मेरी सबसे बेशकीमती ,अटैची

कुबेर के ख़ज़ाने से 
कही ज्यादा क़ीमती ,
यादों की अटैची
हां यादों की अटैची

अरसे बाद रात 
फुरसत से खोली थी ,
मैंने स्मृतियों की संदूकची

कुछ पुराने रेल टिकट ,
कुछ कागज़ के पुर्जे
जीवाश्म की शक्ल ले रहे 
15 बरस पुराने 
कुछ चॉकलेट,
कुछ खाली रैपर,
दो पेपर और स्टिकर,गिफ़्ट पैक की,
तब की ,थीन पेपर -कार्बन, 
कुछ फ्लॉपी और सीडी भी,
एक चावल का दाना 
दाने पर दर्ज दोस्तो के नाम
और एक डायरी भी,

डायरी जिसके हर्फ़ हर्फ़ में
दर्ज है,प्रार्थनाएं,मंगलकामनाएं,

छोटे बड़े सपने और उनके पीछे
शिद्दत से भागने की मुकम्मल कहानी
दर्जनों, मीठे,नमकीन किस्से
बहुत सी कही -अनकही
मौन और चुप्पी भी

हज़ारों लम्हे, कुछ बेहद ख़ास रिश्ते, 
थोड़ी बेबकूफियां,बहुत सी निशानियां ,
वादों की फ़ेहरिस्त, बतकहियों का दौर
कहकहों की गूंज ,गीत-ग़ज़ल का सिलसिला
तबले की थाप,सर का आशीष
पूरे मन से लिखी दर्जन भर ज्यादा काव्य रचनाएं
और इन सब के बीच
पेज़ और वक़्त से फाड़ी गयी
एक बेहद खास कविता की रिक्तता भी
वैसे ही जस की तस
मौजूद है इस वक़्त भी डायरी के पन्ने में 

कमाल ये की सब कुछ 
दिन ,तारीख़ और वक़्त के साथ दर्ज है,

फ़िलहाल निहाल तो इस बात से हूं,
की डायरी के पन्ने बस अल्फ़ाज़ भर नही है, 

शब्द,भाव,दृश्य,चेहरे,घटना
सब के सब 
आज भी जीवंत है,

शब्दो की ऊष्मा 
अब भी मौजूद है 
हर अक्षर हर पृष्ठ में
और ये सब फिर से
जिया है मैंने
यादों की अटैची से।।

अनहद




बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

# श्रीमान के नाम #



शब्दों को चबा कर बोलने
और
हथेलियों को मसलने भर से ,
हिंदुस्तान की हक़ीक़त नहीं बदलती है
श्रीमान

ठीक, वैसे ही
जैसे एजेंडे और प्रोपगंडे से
झूठ को सच नहीं किया जाता

ठीक वैसे ही
जैसे थकेले और धकेले हुए
गुर्गों के गैंग या षड्यंत्र से
मेहनतकशों की ज़मात को
नकारा नहीं जा सकता

ठीक वैसे ही
जैसे
झूठ के प्रचार और बनावट की खोल से
सियार शेर नहीं बन सकता,

सनद रहे श्रीमान ,
विशाल का ढोंग करके
कोई बौना
कभी विराट नहीं हो सकता

याद रखिएगा
तारीख़ हिसाब मांगेगी,

आपकी दाढ़ी के हर सफ़ेद तिनके से
दिलों -दिमाग का सब स्याह निकलेगा
और जिस दिन ये सब होगा
समय का अट्टहास गूंजेगा

तब उस वक़्त का वर्तमान बोलेगा
आपने पेशे और अवसर दोनो को कलंकित किया है ........

अनहद

मंगलवार, 28 अगस्त 2018

भाई - बहिन

प्रिय बहिन
अप्रितम स्नेह
अछोह दुलार
अनंत मंगलकामना।
विधाता की कृपा से 
आज भी
कुशल हूँ, विकल हूं
इस बार भी
आए थे ,हनुमान जी।
लेकर आपकी तार
तिलक, रोली,मिठाई ,राखी
वाला प्यार।
मालूम नही मईया ने कुछ कहा,
या मेरे तार का असर था।
जो भी हो इस बार विशेष हो गया।
अरसे बाद ,अबकी बार
आपकी आहट मैने महसूस किया।
शब्दो से परे है ये अनुभूति 
इस वक़्त के लिए बस इतना ही 
आप हमेशा हमेशा ख़ुश रहे.बहिन ।
 
आपका भाई

शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

बरगद और सोन चिरइयां

काव्य की शैली में, मेरी पहली कहानी



आज सुनाने आया हूँ, मैं एक कहानी
ना परियों की,ना किसी रानी की
ना दादी की ,ना नानी की

ये कहानी है
दूर देश मे रहने वाले
सोन चिरईयाँ और बरगद की।

शुरुआत उस वक़्त से ,जब बरगद की जड़े
ज़मीन के अंदर
तो, टहनियां,आकाश की ओर
विस्तार ले रही थी।

उन्ही दिनो,किसी रोज
मई की तपती दोपहरी मे
जड़ से फुनगी तक,अचानक
बरगद में सरसराहट हुई
किसी के आने की आहट हुई
शाखों ने ख़बर की
पंखों को तौलती
एक सोन चिरईयाँ ,आई है।
फिर क्या,
टहनियों ने सहारा
और पत्तियों ने दी छाया
सोन चिरईयाँ,पहले पहल सकुचाई
थोड़ी मुस्कुराई, कहा शुक्रिया।

लेकर कुछ पल का विराम
थके पंखों में भरकर जान
बरगद को छोड़,निकल पड़ी
अपने घोंसले की ओर।

इधर ,बरगद झूमने लगा
मन ही मन ,गुनने लगा
सबसे बेहतर, साथी मिल गया।

बरगद और सोन चिरईयाँ की
ये पहली मुलाक़ात थी।

फिर तो,
सिलसिला ही चल पड़ा
मिलने-जुलने,कहने-सुनने का
दिन,तारीख़, समय कुछ भी निश्चित न था,
सिवाय इस बात के,
कभी बेहद लंबे,कभी छोटे
अनकहे, अनसुने,स्थाई  इंतज़ार के ।

जड़वत खड़े,बरगद ने
अपनी शाखों को ,खोल दिया था
दसों दिशाओ में,भुजाओं की तरह।

बरगद की चाहत थी,
सोन चिरईयाँ,जब भी आए,
जिस भी दिशा से आए
पत्तियों और शाखों को
अपनी ज़द में पाए।

ये सब
उस सोन चिरईयाँ के लिए था,
जिसकी किस्मत में विधाता ने
उड़ान ,लिखा था,और पंखों में
सामर्थ्य भरा था,
दिशाएं,समंदर
धरती, अम्बर
सब मापने,सबके पर जाने का।

गुज़रते वक़्त के साथ
आत्मिक हो रहे
बरगद और सोन चिरईयाँ,के रिश्ते में,
तब ,पहली बार ,कड़वाहट वाला क्षण आया था।

यूं तो बरगद बेहद संयमित था,
पर उस रोज,पहली बार
बरगद का संयम,टूट गया।

कई दिनों के बोझिल,आकुल
पहाड़ जैसे इंतज़ार के बाद,
चुपचाप,सहमी सी ,सोन चिरईयाँ
आई थी,संग अपने,
दूर देश जाने का संदेशा लाई थी।

फिर क्या था
अनहोनी की आशंका से बेज़ार
बरगद फूट पड़ा
जुड़े हुए हाथ के साथ
चीखते हुए कहा
जाओ अब कभी मत आना
अब नही है,यहां कोई ठिकाना।

सोन चिरईयाँ ने बहुत कोशिश की
बरगद को समझाने की
अपनी स्थितियों को बताने की,
मानने की,कुछ जताने की
पर, बरगद ने ना सुनने की शपथ उठा ली थी।

रिश्ते को शायद,थी नज़र लग गयी ,ज़माने की
भरोसा टूटने लगा
मनाने  वाला रूठने लगा ।

फिर तो
नाराज़गी और लड़ाईयों का
सिलसिला ही चल पड़ा।
बातों ,मुलाक़ातों का दौर
मुख़्तसर होने लगा।
शब्दों ने ,भाव खो दिया
और शायद,
रिश्ते ने यहीं अपना दम तोड़ दिया।

फिर ,एक रोज़
समंदर के पार से,सोन चिरईयाँ ने ,
औपचारिक संदेशा भेजा,
सुनो,बरगद
"अब मुझे फ़र्क, नही पड़ता"
मग़रूर, बरगद ने चीखते हुए कहा,
"मुझे भी ज़रूरत नही
समझो सब ख़त्म हुआ"।
इस संवाद के बाद
बरगद चुप है आज भी
औऱ सोन चिरईयाँ मौन।
सवाल अब तक मुखर है।
क्या सच मे इस रिश्ते का यही होना था?


अमिताभ भूषण अनहद